राजनैतिक ही नहीं,अब मूल्यों,सिद्धांतों का भी आपातकाल -डॉ राघवेंद्र शर्मा

भोपाल। 25 और 26 जून 1975 की रात को देश में उस आपातकाल का प्रादुर्भाव हुआ, जिसने राजनैतिक विद्रूपता को नया शिखर प्रदान किया था। तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने लोकतंत्र की तो हत्या ही कर ही दी थी। जहां तक संविधान की बात है तो उसी को अपने मनमाफिक दुरुपयोग करने की गरज से प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा देश पर अवांछनीय आपातकाल थोपा गया था। सारे विपक्षियों को जेल के हवाले किया गया और जिसने भी तत्कालीन सत्ता के खिलाफ बोलने का साहस किया उसे राष्ट्रद्रोह जेसी खतरनाक आपराधिक धाराओं के तहत विरुद्ध किया गया। गनीमत यह रही कि तत्समय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जनसंघ और समाजवादी संगठनों ने उक्त तानाशाही पूर्ण कृत्य के खिलाफ आक्रामक विद्रोह किया तथा लगभग 2 साल के अंतराल में ही सरकार पलट कर रख दी। किंतु यह काम आसान ना था। इसके लिए कम्युनिस्टों के अलावा लगभग सभी गैर कांग्रेसी राजनैतिक दलों ने अनेक कुर्बानियां दीं। विपक्षी नेताओं ने असहनीय कष्ट भोगे।

अधिकांश आंदोलनकारी आपातकाल का दौर जेलों की काल कोठरियों में बिताने के लिए बाध्य रहे। अब जब देश आपातकाल की 48 वीं बरसी मना रहा है, तब दुर्भाग्यवश एक और आपातकाल देखने को मिल रहा है। यह आपातकाल राजनैतिक तो है ही, इसके साथ साथ मूल्यों और सिद्धांतों पर भी इसकी काली छाया पड़ती साफ साफ देखी जा सकती है। उदाहरण के लिए – कम्युनिस्ट नेता सीताराम येचुरी ने 25 जून 2023 को एक ट्वीट के माध्यम से यह बताया कि केंद्र में आरुढ़ एनडीए की मोदी सरकार को पदावनत करने के लिए पीडीए यानि कि पेडियाट्रिक डेमोक्रेटिक एलाइंस गठित होने जा रहा है। अब सवाल उठता है कि इसमें राजनैतिक मूल्यों, सिद्धांतों का आपातकाल कहां से आ गया है? इसके लिए हमें तात्कालिक राजनैतिक अफरा तफरी पर बारीकी से गौर करना होगा। जैसे- कम्युनिस्ट नेता ने जिस पीडीए की जानकारी सार्वजनिक की है, उसमें उन ममता बनर्जी को भी शामिल माना जा रहा है जिन्हें इस गठबंधन की घोषणा करने वाले दल द्वारा संचालित सरकार की पुलिस ने चोटी पकड़कर उस रायटर्स बिल्डिंग से घसीट बाहर किया था, जिसे पश्चिम बंगाल का मंत्रालय कहा जाता है। वह कांग्रेस भी हमेशा की तरह इन कम्युनिस्टों के साथ है, ममता बनर्जी उसकी युवा नेत्री तब हुआ करती थीं, जब उनका पश्चिम बंगाल की धरती पर कम्युनिस्ट सरकार द्वारा घोर अपमान किया गया था। यानि जिसने एक महिला की चोटी पकड़कर अपमान किया वह, जिस दल की महिला नेत्री का अपमान हुआ वह और जिस महिला नेत्री का अपमान हुआ वह, सब के सब अपने राजनैतिक स्वार्थों की पूर्ति हेतु एक नाव के सवार बन गए हैं। इतना ही नहीं, इस गैर प्राकृतिक और अपवित्र गठबंधन में ऐसे ही अनेक राजनैतिक दलों और नेताओं की भरमार है। इनमें लालू यादव, नीतीश कुमार और अखिलेश यादव के नाम प्रमुख हैं। इनमें से लालू यादव और नीतीश कुमार तो उस समाजवादी आंदोलन की पैदाइश हैं, जिसका जन्म ही कांग्रेस एवं उसकी सरकारों द्वारा अपनाई गई हिटलर शाही के विरुद्ध ही हुआ था। उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह भी इसी श्रेणी के नेता रहे हैं, जिनके पुत्र अखिलेश यादव भी पीडीए में कांग्रेस के साथ गलबहियां करते दिख रहे हैं। द्रमुक और कांग्रेस का तो सांप नेवले जैसा बैर जगजाहिर है। कॉन्ग्रेस आरोप लगाती रही है कि द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम ने पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या करने वालों का साथ दिया था। अब इनका साथ गौर से देखें तो इसमें राजीव गांधी के वंशज उस दल के नेताओं के साथ मित्रवत हैं, जिन पर उनके पिता की हत्या का आरोप वे स्वयं लगाते रहे हैं। रह जाती है आम आदमी पार्टी तो उसे भी पीडीए से उम्मीदें कम नहीं हैं। यदि यह संभावित गठबंधन दिल्ली अध्यादेश का विरोध करने पर सहमत होता है तो यह दल भी इस गठबंधन में समाहित होने को आतुर है। फिर भले ही आम आदमी पार्टी का गठन भी उस आंदोलन से क्यों ना हुआ हो, जो कांग्रेस की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ अन्ना हजारे द्वारा आहूत किया गया था। याद रहे, उक्त आंदोलन का राजनैतिक लाभ उठाने की दृष्टि से ही उसका एक अंग रहे अरविंद केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी के गठन का ऐलान किया था। लिखने का आशय यह है कि कांग्रेस सहित अनेक विपक्षी दलों के जिस गठबंधन को पीडीए बताया जा रहा है, उसमें ऐसे संगठन और नेता एक साथ दिखाई दे रहे हैं जिनके राज नैतिक मूल्यों और सिद्धांतों जीवित नहीं कहा जा सकता। इतिहास की बात छोड़ दें और वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य पर गौर करें तब भी इस गठबंधन के अवसरवादी होने का प्रमाण स्पष्ट दिखाई देता है। जैसे दिल्ली में कॉन्ग्रेस और आप के बीच घमासान है। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी कम्युनिस्टों और कांग्रेस से लोहा लेती दिखाई देती हैं।

लेखक- वरिष्ठ पत्रकार हैं

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