वन नेशन वन इलेक्शन, यानि “एक राष्ट्र एक चुनाव” अनेक दशकों से महत्वपूर्ण मुद्दा बना हुआ है। इसे लेकर भारतीय प्रबुद्ध वर्ग में लगातार विचार विमर्श भी जारी है। लेकिन खेद का विषय है कि देश एवं लोकतंत्र के लिए लाभदायक होने के बावजूद इस अवधारणा को अभी तक लागू नहीं किया जा सका है। अब जब केंद्र की जनतांत्रिक गठबंधन सरकार और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे लागू करने का संकल्प जाहिर कर दिया है तथा इस ओर अपने कदम बढ़ा दिए हैं तो इस विषय पर एक बार फिर विचार विमर्श और बहस का दौर शुरू हो गया है। एक लोकतांत्रिक देश के लिए यह शुभ लक्षण है। पहला शुभ लक्षण यह कि देर से ही सही, कम से कम वर्तमान सरकार ने इसे लागू करने का संकल्प तो आगे बढ़ा ही दिया है। दूसरा शुभ लक्षण यह है कि इस मसले पर बुद्धिजीवी लोग विचार विमर्श करने लगे हैं और यह विषय बहस का केंद्र भी बन चला है। जाहिर है जब किसी विषय वस्तु को मथा जाता है तो परिणाम के रूप में “सार तत्व” की प्राप्ति होती है। अतः उम्मीद की जानी चाहिए कि जब राष्ट्रीय स्तर पर क्या आम और क्या खास, सभी वर्गों के लोग वन नेशन वन इलेक्शन को लेकर वार्तालाप करेंगे, इस बारे में विचारों का आदान-प्रदान करेंगे तथा इस पर खुले दिमाग से बहस होगी, तो अंततः देश इस निष्कर्ष पर पहुंच पाएगा कि क्या इस अवधारणा को लागू किया जाना चाहिए? यदि हां तो इसे किस रूप में लागू किया जाना उचित रहेगा। देखा जाए तो वन नेशन वन इलेक्शन नया मुद्दा है ही नहीं। यदि यह नियम कानून बनकर लागू हुआ तथा समूचे देश में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ कराए गए तो पूरी जिम्मेदारी के साथ लिखा जा सकता है कि ऐसा हमारे देश में पहली बार नहीं हो रहा होगा। देश में हमारा संविधान लागू होने के बाद से लेकर लंबे कालखंड तक लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ सफलता पूर्वक संपन्न होते रहे हैं। विस्तार से गौर करें तो हम पाएंगे कि आजाद भारत में 1951-52, 1957, 1962 और 1967 तक लोकसभा तथा विभिन्न राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव एक साथ संपन्न होते रहे हैं। लेकिन 1960 और उसके बाद नए राज्यों का अस्तित्व सामने आना और इसी कालखंड में कांग्रेस शासित तत्कालीन केंद्र सरकार द्वारा विभिन्न राज्यों की विधानसभाएं भंग की गईं। इससे 1967 में अंतिम बार देश में जो एकीकृत चुनाव हुआ, उसमें सत्ता पर काबिज कांग्रेस को राजनीतिक नुकसान उठाना पड़ गया। परिस्थितियां ऐसी निर्मित हुईं कि राजनीतिक लाभ हानि के दृष्टिगत 1972 के लोकसभा चुनाव भी समय से पूर्व कराने पड़ गए। बस तभी से वन नेशन वन इलेक्शन की अवधारणा बुरी तरह से छिन्न-भिन्न हो गई। केंद्र सरकार पर काबिज राजनैतिक दल अपने नफा और नुकसान को ध्यान में रखकर सुविधा के हिसाब से कभी केंद्र के तो कभी विभिन्न विधानसभाओं के चुनाव अपनी सुविधा के हिसाब से आगे पीछे कराने लग गए। जबकि ग्रामीण और नगरीय स्तर पर होने वाले स्थानीय चुनाव तो इतने बेतरतीब हो गए कि इनकी निरंतरता ने एक प्रकार से दैनंदिनी रूप ही अख्तियार कर लिया। यही वजह रही कि देश के प्रबुद्ध वर्ग को यह बात कभी रास नहीं आई। क्योंकि ऐसा करने से जहां विकास कार्य प्रभावित होने लगे, वहीं चुनावी खर्च लगातार बढ़ता चला गया। सरकारी मशीनरी भी अपने मूलभूत कार्यों से विलग होकर अधिकांश समय चुनावी कार्यों में ही व्यस्त रहने लगी। अव्यवस्थित रूप से संपन्न होने वाले चुनाव शांति से निपट जाएं, इसके लिए सुरक्षा बल भी अनावश्यक व्यस्तताओं का शिकार होते चले गए। इसके प्रतिकूल प्रभाव भी भारतीय लोकतंत्र, कानून व्यवस्था, सुरक्षा व्यवस्था और अर्थव्यवस्था पर देखने को मिलते रहे। इस प्रकार विस्तृत अनुभव उपरांत सबसे पहले इस बारे में भारतीय चुनाव आयोग ने आवाज उठाई। जब 1983 के साल में तत्कालीन इंदिरा सरकार के समक्ष एक राष्ट्र एक चुनाव का सिद्धांत पुनः अपनाने का आग्रह किया गया। लेकिन तत्कालीन सरकार ने एक बार फिर देश हित से ज्यादा राजनैतिक नफा नुकसान को महत्व दिया। फल स्व रूप चुनाव आयोग की यह पेशकश टाल दी गई। ऐसा नहीं है कि केवल सत्ता पक्ष के पास ही एक राष्ट्र एक चुनाव की अवधारणा को पुनः स्वीकार करने के प्रस्ताव पहुंच रहे थे। विपक्ष में संघर्ष कर रहे विभिन्न राजनैतिक दलों को भी यह संदेश लगातार मिल रहे थे कि देश में एक राष्ट्र एक चुनाव का सिद्धांत लागू किया जाना चाहिए। लेकिन आश्चर्य की बात है कि न तो अधिकांश विपक्षी दलों ने जनता जनार्दन की ओर से आ रहे इस विचार को धार दी, और ना ही सत्ता पक्ष ने इसे गंभीरता से लिया। जाहिर है विपक्षी दलों में शुमार भारतीय जनता पार्टी के संपर्क में आने वाले बुद्धिजीवियों द्वारा भी यह बात लगातार उठाई जा रही थी कि राष्ट्रीय हित में एक राष्ट्र एक चुनाव का सिद्धांत देश पर लागू किया जाना चाहिए। काफी गहन अध्ययन के बाद, आम आदमी का मन टटोलने के बाद और इसे लागू करने पर भारतीय लोकतंत्र पर क्या प्रभाव परिलक्षित होंगे, यह सब जांचने परखने के बाद, इस पार्टी ने 1984 के साल में जनता से यह वादा किया कि यदि हम सत्ता में आए तो देश में वन नेशन वन इलेक्शन का सिद्धांत लागू करेंगे। उल्लेखनीय तथ्य यह है कि भारतीय जनता पार्टी ने इस मसले को बाकायदा अपने घोषणा पत्र में शामिल भी कर लिया। वर्ष 1999 में विधि आयोग की 170 वीं रिपोर्ट पर गौर करें तो हम पाएंगे कि उसमें भी न्यायमूर्ति वी.पी. जीवनरेड्डी द्वारा भी एक देश एक चुनाव के सिद्धांत की हिमायत की गई थी। वन नेशन वन इलेक्शन की अवधारणा को लेकर यह जो कश्मकश लंबे समय तक चलती रही, इससे एक बात को स्पष्ट हो जाती है कि देश का बहुत बड़ा वर्ग इस विषय से अनभिज्ञ नहीं है और वह बड़ी तल्लीनता के साथ इसमें रुचि ले रहा है। तभी साल 2014 आया और देश में भाजपा की नरेंद्र मोदी सरकार अस्तित्व में आ गई। अगले साल 2015 में संसदीय समिति की 79 वीं रिपोर्ट आई तो एक बार फिर उसमें भी वन नेशन वन इलेक्शन की अवधारणा लागू करने का आग्रह प्रकट हो आया। इस रिपोर्ट के सामने आते ही केंद्र सरकार ने एक बार पुनः इस मसले पर अध्ययन करना और जनता की नब्ज टटोलना उचित समझा। फलस्वेरूप 2019 के साल में प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी द्वारा एक राष्ट्र एक चुनाव का सिद्धांत लागू करने की संभावनाओं पर विचार विमर्श करने के लिए सर्वदलीय बैठक आहूत की गई। 2023 के साल में पूर्व राष्ट्रपति श्री रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में एक उच्च स्तरीय समिति का गठन किया गया। इसमें अध्यक्ष के अलावा आठ अन्य लोग बतौर सदस्य शामिल किए गए। इस कमेटी द्वारा भारत के अनेक राजनीतिक दलों, विधि विशेषज्ञों, बुद्धिजीवियों एवं सामाजिक क्षेत्र में सक्रिय प्रबुद्ध जनों से सलाह मशविरा कर उनके सुझाव मांगे गए। इस महत्वपूर्ण अध्ययन में इस कमेटी को 191 दिनों का समय लगा और फिर यह संपूर्ण रिपोर्ट 2024 में पूर्णता को प्राप्त हो गई। रिपोर्ट के मुताबिक भारत के 32 राजनीतिक दल वन नेशन वन इलेक्शन के पक्ष में कटिबद्ध नजर आए, तो 15 सियासी संगठन के नेता विरोध अथवा संशोधन की आवश्यकता दर्ज कराते दिखाई दिए। रामनाथ कोविंद समिति द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट के आधार पर तैयार मसौदे को उसी साल केंद्र सरकार की कैबिनेट ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में मंजूरी दे दी। अब इसे कानूनी मान्यता दिलानी थी सो बहस के लिए विधेयक संसद में प्रस्तुत कर दिया गया। इस पर व्यापक बहस चली और अब मामला संयुक्त संसदीय समिति के पास है।
अब विचार विमर्श और बहस का मसला यह है कि संयुक्त संसदीय समिति के पास एक राष्ट्र एक चुनाव का जो मसौदा विचाराधीन है, उसमें ऐसा क्या है जिसे आवश्यकता अनुसार संशोधित किया जाए या फिर विलोपित भी किया जा सकता है क्या? जाहिर है ऐसा करते और करने के लिए सोचते समय संयुक्त संसदीय समिति को उन अभिमतों पर ध्यान केंद्रित करना होगा जो रामनाथ कोविंद कमेटी को आम जनता की ओर से मिले तथा उन्हें भारतीय लोकतंत्र के हित में माना गया। यदि इससे हटकर भी इतिहास के पन्नों की ओर जाकर एक राष्ट्र एक चुनाव का सिद्धांत विस्मृत करने के कारण तलाशे जाएं। तो यह बात समझ में आ जाती है कि देश में लोकसभा और विभिन्न विधानसभाओं के चुनाव एक साथ में कराया जाना किसी सुनियोजित नीति सिद्धांत के तहत स्थगित नहीं किया गया। दरअसल यह वह लापरवाही है जो तात्कालिक सुविधाओं और राजनीतिक लाभ हानि के विचार को महत्व देते हुए व्यवहार में लाई गई। उदाहरण के लिए – यदि कोई विधानसभा भंग की गई अथवा किसी नए राज्य का अस्तित्व सामने आया तो उसे लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई सरकार देने के लिए एक समयबद्ध कार्यक्रम के तहत एक देश एक चुनाव प्रणाली का इस्तेमाल किया जाना चाहिए था। बीच का जो अंतराल था उसे तात्कालिक सर्वदलीय शासन अथवा राष्ट्रपति शासन के माध्यम से पूर्ण किया जाना चाहिए था। ताकि जब लोकसभा और देश की सभी विधानसभाओं के चुनाव एक साथ होते, तो उनके साथ इन भंग हुई विधानसभाओं और नए अस्तित्व में आए राज्यों के चुनाव सब के साथ संपन्न कराए जा सकते। यदि इस तरह की सावधानियां ईमानदार तरीके से बरती गई होतीं तो एक देश एक चुनाव का सिद्धांत भटकाव का शिकार ना होता और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की वर्तमान मोदी सरकार को इसके लिए शुरू से मशक्कत नहीं करनी पड़ रही होती।
अब जब रामनाथ कोविंद समिति अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत कर चुकी है। उसे केंद्र सरकार की कैबिनेट द्वारा मंजूरी दी जा चुकी है। मामला संसद में बहस का विषय बन चुका है और अब यह पूरा मसौदा संयुक्त संसदीय समिति के पास है। तो जाहिर है इसे एक बार फिर संसद का सामना करना पड़ेगा। उसके बाद यह स्पष्ट हो ही जाएगा की एक राष्ट्र एक चुनाव का सिद्धांत एक बार पुनः देश में कौन से स्वरूप में लागू होने जा रहा है। तब यह बात भी आधिकारिक रूप से सामने आ सकेगी कि इसके लागू होने से देश को कौन-कौन से लाभ होने जा रहे हैं। जितना मेरा अनुभव है और इस बारे में अनेक विधि विशेषज्ञों से मेरा जो विचार विमर्श हुआ है, उससे एक बात निकलकर सामने आती है। वह यह है कि इसके लागू होने से भारतीय मतदाता के मन मस्तिष्क में मतदान के प्रति एक सकारात्मक संदेश पहुंचना तय है। वर्तमान में लोकसभा से लेकर ग्राम पंचायत तक हमारे यहां अलग-अलग स्तर पर इतने चुनाव होते रहते हैं कि वर्ष भर देश के किसी न किसी हिस्से में चुनावी प्रक्रिया चलती ही रहती है। यदि साल के 12 महीने इस प्रक्रिया के चलने की बात की जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। इस परिदृश्य ने मतदान की प्रक्रियाओं की अधिकता इतनी ज्यादा कर दी है की आम आदमी इससे ऊबने लगा है। उसे लगता है कि चाहे जब मतदान होता तो रहता है। यदि एक आध मतदान में चूक हो भी जाए तो इससे कौन सा बड़ा फर्क पड़ने वाला है। लेकिन जैसी की रामनाथ कोविंद समिति ने सिफारिश की है, उसके मुताबिक एक चरण में लोकसभा और सभी विधानसभाओं के चुनाव संपन्न कराए जाएं तथा दूसरे चरण में नगरीय एवं ग्रामीण स्तर के सभी स्थानीय चुनाव संपन्न कर लिए जाएं, तो कुल मिलाकर दो चरणों में समूचे राष्ट्र के चुनाव एक साथ संपन्न हो जाएंगे। फल स्वरूप साल के बारहों महीने और पूरे 5 सालों तक यत्र तत्र चलती रहने वाली अव्यवस्थित मतदान प्रणाली से आम जनता को छुटकारा मिलेगा, तो और उसके सामने मतदान के सीमित अवसर उपलब्ध रह जाएंगे। फल स्वरूप वह येन केन प्रकारेण मतदान करने का मन अवश्य बनाएगा। इससे आम जनता का सबसे बड़ा फायदा यह होगा कि चाहे जब और कहीं भी, कभी भी मतदान चलते रहने से चुनावी आचार संहिता लागू होने के कारण क्षेत्रीय स्तर पर जारी विकास कार्यों को रोक देना पड़ता है। इससे एक तो विकास कार्य निश्चित समय अवधि से ज्यादा समय लेने लगते हैं। दूसरी बात, इनमें देरी होने के चलते विकास संबंधी निर्माण कार्यों में भारी पैमाने पर लागत बढ़ती चली जाती है। इससे अंततः आम आदमी के खून पसीने से सिंचित राजकोष का भारी पैमाने पर आर्थिक नुकसान होता है। जाहिर है तत्कालीन सरकारें विभिन्न करों के माध्यम से इस नुकसान की भरपाई अंततः आम आदमी की जेब से ही करती हैं। साथ में देश को महंगाई का दंश झेलना पड़ता है सो अलग। बार-बार के चुनाव देश के राजकोषीय घाटे को भी बढ़ाते हैं। क्योंकि अभी जो अव्यवस्थित चुनाव प्रणाली व्यवहार में है, उसके चलते समय-समय पर, अलग-अलग स्तर पर, मतदाता सूचियां में सुधार एवं प्रकाशन कार्य कराने पड़ते हैं। जबकि एक देश एक चुनाव प्रणाली के तहत केवल एक मतदाता सूची का प्रावधान अमल में होगा जिससे अनेक विसंगतियां खत्म होंगी। मसलन – अभी समस्या यह है कि एक व्यक्ति का नाम लोकसभा मतदाता सूची में है तो पता चलता है कि विधानसभा मतदाता सूची से उसका नाम गायब बना हुआ है। नगरीय निकाय मतदाता सूची या फिर त्रिस्तरीय ग्राम पंचायत मतदाता सूची से नाम का विलोपित हो जाना या फिर एक से अधिक जगह पर एक व्यक्ति के नाम का प्रकाशन हो जाना फिलहाल विकराल समस्या बना हुआ है। किंतु जब एक मतदाता सूची राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित होगी तो भारी पैमाने पर होने वाली गफलतों पर स्थाई अंकुश लगाया जा सकेगा।
यही बात देश की सुरक्षा व्यवस्था पर भी लागू होती है। अभी हालत यह है कि कभी भी क्षेत्र विशेष के पुलिस बल, विशेष सशस्त्र बल, होमगार्ड, केंद्रीय आरक्षित पुलिस बल और कभी-कभी अत्यावश्यकता होने पर सीमा की सुरक्षा में लगी सेना को भी चुनावी व्यवस्थाओं में झोंका जाता रहता है। लेकिन एक राष्ट्र एक चुनाव का सिद्धांत लागू हो जाने पर इन आवश्यकताओं की निरंतरता खत्म होगी। इन्हें 5 साल में केवल एक बार संपन्न होने वाले दो चरणों के चुनाव में अपनी सेवाएं देनी होंगी। फल स्वरुप अपना अधिकतम समय देश के सभी सुरक्षा बल अपने मूलभूत कर्तव्यों के निर्वहन में समर्पित कर सकेंगे। यही बात विभिन्न शासकीय विभागों में कार्यरत उन अधिकारियों, कर्मचारियों पर भी लागू होगी जो अपने मूलभूत कार्यों से बिलग होकर अक्सर चुनावी कार्यों की खानापूर्ति में ही लगे रहते हैं। सबसे बड़ी बात यह कि देश के स्थाई और अस्थाई संसाधनों को भी भारी पैमाने पर वर्तमान अव्यवस्थित चुनाव प्रणाली को संपन्न कराने हेतु समय-समय पर लगाना पड़ रहा है। इससे केंद्र और विभिन्न राज्यों के अधिकांश विभाग लगभग परेशान ही बने रहते हैं।
लिखने का आशय यह कि देश की अव्यवस्थित वर्तमान चुनाव प्रणाली के चलते जिन प्रतिकूलताओं और हानिकारक अवस्थाओं का सामना भारत को करना पड़ रहा है, उन सभी का शमन “एक राष्ट्र एक चुनाव” प्रणाली में ही समाहित है। उम्मीद की जानी चाहिए कि देश के सभी राजनैतिक दल दलगत राजनीति के भाव से ऊपर उठकर राष्ट्रीय हित में इसका समर्थन करेंगे।
– लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं