हमारे देश ने आर्थिक तौर पर काफी तरक्की कर ली है। इतनी तरक्की कि के वैश्विक अर्थव्यवस्था में भारत का योगदान अब स्पष्ट दिखाई दे रहा है। जो पड़ोसी विस्तारवादी देश कल तक हमारे भू भाग को हड़पने के लिए प्रयास करते दिखाई देते थे, अब वार्ता टेबल पर आकर समझौते करना उनकी मजबूरी बन चली है। हम इतने ताकतवर हैं कि दुनिया के बड़े-बड़े देश हमसे उम्मीद करने लगे हैं कि हम उनके झगड़े और उनकी समस्याओं का निराकरण कर सकते हैं। कुल मिलाकर भारत सभी क्षेत्रों में इतनी तरक्की कर गया है कि दुनिया भर में उसकी योग्यता का लोहा माना जा रहा है और विभिन्न वैश्विक मंचों पर उसकी आवाज को गंभीर श्रव्यता प्राप्त हो रही है।
लेकिन एक पहलू ऐसा भी है जहां हम लगातार गिर रहे हैं और गिरते ही चले जा रहे हैं। यह पहलू है हमारे नैतिक मूल्यों में निरंतर होती जा रही गिरावट का। नैतिक रूप से हमारा इतना पतन हो चला है कि अब सोचना पड़ता है, हमने जितनी भी उपलब्धियां हासिल कीं तो आखिर ऐसा क्या प्राप्त कर लिया, जिस पर गौरवान्वित हुआ जाए ? क्योंकि जब नैतिकता में खोट पैदा हो जाए और चारित्रिक गिरावट हमारी पहचान बनने लग जाए तो फिर खुश होने का कोई कारण ही नजर नहीं आता। यह सब इसलिए लिखने को बाध्य होना पड़ा क्योंकि एक बार फिर खबर मिली है कि राजधानी में 4 साल की बच्ची से 13 साल के बच्चे द्वारा एक से अधिक बार बलात्कार किया गया है। इस मामले की पहली गंभीरता तो यही है कि पीड़िता और आरोपी दोनों ही उस उम्र के हैं, जब उन्हें काम वासना का एहसास तक नहीं होना चाहिए था। यह उन दोनों की पढ़ने लिखने और बाल सुलभ खेल खेलने की उम्र है। तब इनके द्वारा वह सब घटित हो गया जो मानवीय दृष्टिकोण से रोंगटे खड़े कर देने वाला है। इस शर्मनाक घटना का दूसरा चिंताजनक पहलू यह है कि बलात्कार करने वाला बालक पीड़िता के परिवार के मित्र परिवार का ही पड़ोसी सदस्य है। सहज रूप से यह दोनों पीड़िता और आरोपी आपस में मिलजुल कर सहज रूप से खेलते रहे हैं। इनकी मित्रता इतनी सहज तो अपेक्षित है कि पीड़िता के परिजन यदि किसी अत्यावश्यक कार्य से कुछ समय के लिए आसपास जाने को बाध्य हों तो ऐसे में भी बलात्कार के आरोपी से अपेक्षा करते रहे होंगे कि वह थोड़ी देर के लिए उनकी बेटी का ध्यान रखेगा। लेकिन अब इस प्रकार की घटनाएं हमें चिंता में डालती हैं। भारतीय सभ्यता में एक कहावत बहुत पुरानी है कि जब किसी के घर में आग लगती है तो संभव है उसका सगा भाई मदद करने समय पर ना पहुंच पाए। लेकिन वह पड़ौसी ही होता है जो पड़ौसी के घर की आग पर सबसे पहले पानी डालने को तत्पर रहता है। किंतु अब जब इस घटना ने सभ्य समाज में एक बार फिर अपना कलुषित चेहरा उठाया है, तो सवाल उठता है कि जब पड़ोसी ही विश्वास योग्य नहीं रहे तो फिर अब भरोसा किस पर करें ? गौर से देखा जाए तो यह घटना जितनी वीभत्स और भयावह है, इससे भी ज्यादा निकृष्ट मामले हमने पहले भी देखे हैं। मसलन – इस घटना में बलात्कार का आरोपी नासमझ उम्र का बालक और पीड़ित परिवार का पड़ोसी है। जबकि अन्य मामलों में बलात्कार के आरोपी नासमझ पीड़िताओं के स्वजन, परिजन भी पाए जाते रहे हैं। अभी हम सवाल उठा रहे थे कि जब पड़ोसी भी विश्वास करने योग्य न रह जाए तो फिर किस पर भरोसा करें। लेकिन सवाल यह भी है कि बच्चियों तो अपने परिवारों में भी सुरक्षा का अनुभव नहीं कर पा रही हैं। हम यह नहीं कहते कि पूरा का पूरा भारतीय समाज अधोगति की ओर अग्रसर हो गया है। लेकिन इस तरह के मामले एक चिंताजनक संकेत अवश्य दे रहे हैं। संकेत यह है कि हमें अपनी शिक्षा पद्धति और अपने जीने के ढंग को परिवर्तित तो करना पड़ेगा। केवल आर्थिक और सैन्य प्रगति के आधार पर हम स्वयं को विकसित सभ्य और गौरवशाली देश नहीं मान सकते। इसमें कोई संदेह नहीं कि देश को विकास के पथ पर ले जाने का काम हमारी सरकारों के हैं। लेकिन नैतिकता का विषय हमारा बेहद व्यक्तिगत मामला है। यदि मैं थोड़ा सा आगे बढ़कर कहूं तो यह भी पाता हूं कि इस प्रकार के मामले केवल कानून व्यवस्था का विषय नहीं माने जा सकते। क्योंकि इस तरह के बचकाने किंतु खतरनाक अपराधों में आरोपी कोई पेशेवर मुजरिम नहीं हैं। ये वह बच्चे हैं जिन्हें संयुक्त परिवारों का मार्गदर्शन लाड दुलार और बाल सुलभ अपनापन मिला ही नहीं। कोड़ में खाज उस शिक्षा प्रणाली ने पैदा कर दी जो पश्चिमी सभ्यता पर आश्रित है और केवल आर्थिक तरक्की को ही सर्वस्व मानकर प्रचलन में बनी हुई है। बेशक सरकार का भी दायित्व है कि वह देश की शिक्षा प्रणाली पर पुनर्विचार करे और खास कर पठन-पाठन से लगभग गायब हो चुकी नैतिक शिक्षा की पुनर्स्थापना करे। नागरिकों को भी चाहिए कि वे अपने बच्चों की तरक्की का आधार केवल इस बात को ना बनाएं कि उनका बच्चा बड़ा होकर एक सफल नौकरशाह, उद्योगपति, व्यवसायी, जनप्रतिनिधि आदि बन जाए। उन्हें यह भी सोचना होगा कि इन सबसे पहले हम अपनी संतान को इंसान बनाएं। क्योंकि मानव समाज में इंसानियत ही नहीं रहेगी तो फिर तरक्की के पायदान दूसरों की कमजोरियों पर पैर रखकर ही तय किए जाएंगे और किये जा रहे हैं। शिक्षा और सोच के यही हाल रहे तो भविष्य में भी किए जाते रहेंगे। ये बलात्कार की घटनाएं भी हमारे चारित्रिक गिरावट का परिणाम ही हैं। संभव है कुछ लोग मेरी बात से सहमत ना हों और इसे कानून व्यवस्था का मामला मांनने की जिद करें। लेकिन मैं यही कहूंगा कि किसी भी ताकतवर देश की कोई भी उच्च प्रशिक्षित पुलिस घर-घर जाकर, यहां तक कि बच्चों पर भी सुरक्षा पहरा नहीं बिठा सकती। इस सुरक्षित दायरे का निर्माण तो समाज को ही करना होगा। क्योंकि इसे विकृत भी तथा कथित संभ्रांत और सभ्य मानव समाज ने ही किया है।
कितना अच्छा होगा की लाइटों और दियों से घरों को रोशन करने के साथ-साथ पर हम यह संकल्प लें कि अपने भीतर, अपने परिवार के बीच और व्यापक मानव समाज में ज्ञान एवं नैतिकता का दीप जलाना हमारी पहली जिम्मेदारी होगी। यदि हम इस दायित्व को पूर्ण कर पाए तो ही हमें सही मायने में एक चरित्रवान समाज की कल्पना करने का अधिकार प्राप्त हो पाएगा।
लेखक स्वतंत्र पत्रकार है