प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी की व्यापक सोच और भारतीय बौद्धिकता के प्रति उनका अटूट विश्वास, अंततः ये न्याय की देवी की आंखें खोलने में सफल रहे। इस बेहद महत्वपूर्ण घटनाक्रम ने भारतीय जनमानस तक यह संदेश पहुंचा दिया कि अब प्रत्येक क्षेत्र से परतंत्रता के आयातित सम्मान चिन्ह एक-एक करके हटाए जाएंगे। उनके स्थान पर भारत के उन गौरवशाली मानदंडों को स्थापित किया जाएगा, जो एक समय इस देश को विश्व गुरु होने का सम्मान प्रदान करते रहे हैं। उल्लेखनीय है कि भारत सरकार और विशेष तौर पर यशस्वी प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी की दृढ़ इच्छा के चलते न्याय की उस देवी की आंखों से पट्टी खोल दी गई जो इस देश की प्रत्येक न्यायालय में स्थापित है और न्याय का प्रतीक मानी जाती रही है। बता दें कि रोमन देवी जस्टीशिया की तराजू और तलवार युक्त प्रतिमा को ब्रिटिश औपनिवेश काल के दौरान अंग्रेज 17 वीं शताब्दी में भारत लेकर आए और 18 वीं सदी में इसे अदालतों में न्याय की देवी के रूप में स्थापित कर दिया। जानकार बताते हैं की जस्टीशिया शब्द से ही जस्टिस, यानि न्याय शब्द का प्रादुर्भाव हुआ और यह विधि का अंतिम सत्य बनकर स्थापित हो गया। किंतु इस मूर्ति के स्थापत्य काल से ही बुद्धिजीवी लोग इसके स्वरूप पर अनेक सवाल उठाते रहे हैं। मसलन – इसकी आंखों पर पट्टी कानून को अंधा बताने का कारण बनती रही है। वहीं मूर्ति के हाथ में सज्ज तलवार दमन का प्रतीक बताई जाती रही। अच्छाई और बुराई के प्रतीक तराजू के दो पलड़ों को भी समान प्रदर्शित किया जाना गैर विवादित नहीं माना गया। क्योंकि न्याय को सदैव ही सत्य के पक्ष में झुकना ही होता है। भारतीय दर्शन भी यही कहता है कि पाप की अपेक्षा पुण्य और अधर्म की अपेक्षा धर्म का पलड़ा सदैव भारी ही रहता है। इसीलिए विद्वत्जन सदैव ही इस मूर्ति के साथ संलग्न तराजू के स्वरूप को लेकर भी पुनर्विचार की सुगबुगाहट बनाए रहे हैं।
यह बड़े दुर्भाग्य की बात है कि आजादी के बाद सत्ता के शीर्ष पर स्थापित हुए और अधिकतम समय तक सत्ता में बने रहे राजनीतिक दल कांग्रेस तथा उसके नेताओं ने ब्रिटिश उपनिवेशवाद को जस का तस अपना लिया। जैसे – विदेशी आक्रांताओं और यहां बलात् सरकारें स्थापित करने वाले मुगलों, अंग्रेजों को न्याय से कोई लेना देना ही नहीं था। उन्हें केवल देशभक्ति की बात करने वाले स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को दंड देना ही भाता रहा। यही वजह रही कि जब देश आजाद हुआ तो देश को संपूर्ण न्याय मिला ही नहीं। उससे भी ज्यादा अफसोस की बात ये है कि यह बात तत्कालीन सत्ता पिपासुओं की समझ में ही नहीं आई। या फिर उन्होंने इसे ना समझने का प्रदर्शन किया जाना अपने व्यवहार का अंग बनाए रखा। तो फिर हमें भारतीय न्याय संहिता मिलती कहां से ? फल स्वरूप जो अंग्रेजों से प्राप्त हुआ, उसे ही प्रसाद मानकर देश को दशकों तक दंड विधान में उलझा कर रखा गया। जबकि भारत सदैव ही दंड से अधिक न्याय को वरीयता देता रहा है। उदाहरण के लिए त्रेता युग में रामराज की बात करें तो वहां न्याय को इतनी वरीयता थी कि दंड केवल सन्यासियों के हाथ तक ही सीमित रह गया था। गोस्वामी तुलसीदास जी लिखते भी हैं –
दंड जनिन्ह कर भेद जहं, नर्तक नृत्य समाज।
जीतहु मनहि सुनिय अस, रामचंद्र के राज।।
अर्थात बाबा तुलसीदास लिखते हैं कि श्री रामचंद्र जी के राज में न्याय व्यवस्था इतनी सुंदर थी कि साधारणतया किसी को दंड देने का अवसर ही पैदा नहीं होता था। दंड शब्द को एक प्रकार से अयोध्या के लोग विसार चुके थे। क्योंकि न्याय प्रधान राज कार्य के चलते दंड शब्द राजकीय व्यवहार से विलुप्त हो चुका था। यह मनकों की माला को जपते समय सन्यासियों के हाथ को सहारा देने का एक यंत्र मात्र रह गया था। इसीलिए कहा गया है कि भारत का गौरवशाली अतीत पूरे विश्व के लिए सदियों तक मार्गदर्शक बना रहा है। आज भी कई बड़े देश हमारे शास्त्रों, पुराणों और वेदों के अध्ययन में जुटे हुए हैं। क्योंकि इनमें त्रुटियों से पूरी तरह मुक्त न्याय व्यवस्था के बारे में भी काफी विस्तार से लिखा गया है। इसी ज्ञान और केंद्र सरकार की व्यापक सोच का परिणाम है कि अब भारतीय दंड विधान बीते जमाने की बात हो चुका है। अब हमारे देश में भारतीय न्याय संहिता स्थापित हो चुकी है।
भारतीयों का यही ज्ञान विधि अर्थात कानून को अंधा मानने से इनकार करता है। भारतीय सभ्यता कहती है कि कानून को एक कुशल दृष्टा होते हुए बेहद संवेदनशील भी होना चाहिए। तब वह अच्छाई बुराई और पाप पुण्य के बीच के अंतर को न केवल देख सकेगा, बल्कि उसे बेहद गहराई के साथ महसूस भी कर पाएगा। इन जागृत अवस्थाओं के साथ जो निर्णय सामने आएगा तो वह निसंदेह न्याय और केवल न्याय ही होगा। उदाहरण के रूप में देखें तो देश की शालेय शिक्षा में अंधों और हाथी की कहानी काफी लंबे अरसे तक पठन-पाठन में बनी रही है। उसके मुताबिक एक हाथी अंधों की बस्ती में बंधा पाया जाता है तो कोई भी उसकी वास्तविक स्थिति का आकलन नहीं कर पाता। उसकी सूंड़ को सांप, दांतों को भाले, पैरों को खंबे अथवा पेड़ के तने, पूंछ को रस्सी, कान को सूप और पेट को मसक के रूप में अनुमानित कर लिया जाता है। लेकिन दृष्टतव्यता के अभाव में कोई भी उसे संपूर्ण हाथी के रूप में स्वीकार नहीं कर पाता। तब सवाल यही उठता है कि जिस कानून की आंखों पर पट्टी बंधी हो, आखिर वह झूठ और सच को बगैर चूक किये कैसे देख सकेगा। भारत की इस अवधारणा को देश के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने समझा और फिर एक बड़ा परिवर्तन यह सामने आया कि जिसे न्याय की देवी कहा जाता है न्यायालय में स्थापित उस मूर्ति के आंखों से पट्टी खोल दी गई है।
इस परिवर्तन को भारतीयों का वह बुद्धिजीवी वर्ग सुखद अनुभूति के साथ महसूस कर पा रहा है, जो यह जानता है कि हम अपने सनातन संस्कारों और अपने पूर्वजों द्वारा स्थापित न्याय संगत जीवन प्रणाली को आदर्श मानकर ही देश में त्रुटि मुक्त न्याय प्रणाली को व्यवहार में ला सकते हैं। ऐसा माना जा रहा है कि प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी द्वारा शासित केंद्र की भाजपा नीत सरकार उसे ओर तेजी से कदम बढ़ा रही है।
इन सकारात्मक कार्रवाइयों से उत्साहित प्रबुद्ध वर्ग केंद्र सरकार से कुछ और बड़ी अपेक्षाएं करने जा रहा है। उदाहरण के लिए- न्याय की देवी के हाथ में स्थापित तराजू के दोनों पलड़ों में समानता को उचित नहीं कराया जा सकता। क्योंकि तराजू यदि न्याय का प्रतीक है तो उसके दोनों पलड़े अच्छाई -बुराई या फिर पाप और पुण्य के रूप में देखे जाते हैं। ऐसे में इन्हें बराबर स्थान नहीं दिया जा सकता। अतः यह स्पष्टता भी आवश्यकता महसूस की जा रही है कि तराजू को देखकर यह दृष्टव्य होना चाहिए कि दो में से कौन सा एक पलड़ा पुण्य अर्थात धर्म का प्रतीक है और कौन सा पाप अर्थात अधर्म का।
उदाहरण से समझते हैं – मां दुर्गा अथवा मां काली का स्मरण करें तो मन मस्तिष्क में एक तस्वीर उभरती है। मां के पैरों तले अधर्मी दबा हुआ है। वहीं उनका दाहिना वरद हस्त सज्जनों को अभय प्रदान करता दिखाई देता है। जिन अधर्मियों को अपने बल का यह अतिरेक हो चला हो कि उन्हें कोई परास्त नहीं कर सकता। मां काली के बाएं हाथ में लटक रहे नरमुंड की दुर्दशा यह भरोसा दिलाती है कि जीव मात्र पर अत्याचार करने वाला सदा सुरक्षित नहीं रह सकता। लिखने का आशय यह है कि मां दुर्गा और मां काली का जब स्मरण करते हैं तो वहां स्पष्ट दिखाई देता है कि धर्म, अधर्म, पाप, पुण्य और अत्याचारियों की सही जगह कौन सी है और उनका क्या हश्र होना चाहिए। भारतीय जनमानस को विश्वास है कि आने वाले समय में न्याय की देवी और उसके कार्यभार को निकट भविष्य में और अधिक स्पष्टता के साथ देखने का अवसर अवश्य प्राप्त होगा।
काफी समय से न्यायालय में कार्य करने वाले अभिभाषकों के गणवेश को लेकर भी परिवर्तन की मांग उठती रही है। अभी उनके पहनावे में ब्लैक रोब्स, ब्लैक कोट, फिर उस पर ब्लैक गाउन देखने में आते रहे हैं। कालांतर में यह मांग देश के सर्वोच्च न्यायालय तक भी पहुंच चुकी है। जिसे यह कहकर खारिज किया जा चुका है कि इस बारे में बार काउंसिल आफ इंडिया द्वारा निर्णय लिया जाना उचित रहेगा। एक खास बात और, वह ये कि अदालत में भारी भरकम गाउन पहनकर आने से छूट मिल गई। विद्वान न्यायाधीशों ने टी-शर्ट जैसा परिधान पहनकर वकालत करने से मना किया यह तो समझ में आता है। लेकिन यह बात अभी भी चिंतन का विषय है कि ब्रिटेन जैसे ठंडे देश की जलवायु को ध्यान में रखकर वहां की सरकार द्वारा तय किए गए भारी भरकम वस्त्रों को क्यों अभी तक भारतीय अभिभाषकों के लिए अनिवार्य बनाकर रखा हुआ है। उम्मीद की जानी चाहिए कि जल्दी ही देश की सरकार और न्यायपालिका हमारे देश की जलवायु को तथा यहां के तापमान को ध्यान में रखते हुए इस ओर भी न्याय संगत निर्णय पारित करने में सफल होंगी।
लेखक स्वतन्त्र पत्रकार है