प्रबुद्ध वर्ग में वैश्विक स्तर पर एक मान्यता स्थापित है। वह यह कि मैं आपके विचारों से भले ही सहमत ना रहूं, लेकिन आपके विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कभी आहत न हो, यह प्रयास सदैव बना रहेगा। इस भावना का आशय यह है कि हमें केवल उन्हीं बातों अथवा विचारों को प्रोत्साहित नहीं करना चाहिए जो हमें अच्छी लगती हैं। या हमारे प्रति अनुकूलता लिए हुए हैं। बल्कि हमें उन विचारों को भी नजरअंदाज नहीं करना चाहिए जो संभव है हमारे दृष्टिकोण से मेल ना खाते हों, लेकिन व्यापक संदर्भ में उनका लाभ समाज हित में स्थापित होता हो। इस मान्यता का भाव यह है कि जरूरी नहीं सार्वजनिक क्षेत्र में कहीं जाने वाली बात सदैव हमारे अनुकूल ही हो। कभी-कभी यह प्रतिकूलता लिए हुए भी आती है। अतः हमें सामने आए हुए विचार की गंभीरता को समझने के बाद ही उसके बारे में कोई प्रतिक्रिया व्यक्त करनी चाहिए। फिर भले ही वह विचार वैचारिक धरातल पर हमारी भावनाओं से मिल ना खाने वाले व्यक्ति अथवा संस्था की ओर से ही क्यों न आया हो। यह बात लिखने की आवश्यकता इसलिए लगी क्योंकि जन विरोधी कार्यो में संलग्न अथवा ऐसे कुकृत्यों में लिप्त लोगों का समर्थन कर रहे अनेक अवसरवादी नेताओं द्वारा राष्ट्रपति महोदया श्रीमती द्रौपदी मुर्मू के बेहद संवेदनशील बयान को भी केवल राजनीतिक चश्मे से ही देख रहे हैं। यह लोग अपनी अपनी सुविधा अनुसार स्वयं का राजनीतिक हानि लाभ ध्यान में रखकर ऊल-जलूल बयान देने में लगे हुए हैं। इन अवसरवादी और लगभग धैर्य खो चुके नेताओं का कहना है कि राष्ट्रपति महोदय ने उक्त बयान पश्चिम बंगाल के कोलकाता में घटित एक प्रशिक्षु महिला चिकित्सक के बलात्कार और उनकी हत्या की घटना को केंद्र में रखकर जारी किया है। साथ में बयान बाजी की जा रही है कि देश की राष्ट्रपति महोदय को केवल पश्चिम बंगाल का बलात्कार और हत्या ही क्यों नजर आते हैं? उन्हें अन्य राज्यों में हो रहे अपराध क्यों दिखाई नहीं देते? इन नेताओं की संकीर्ण मानसिकता और थोथी बयान बाजी को देख सुनकर बड़ा अफसोस होता है। अरे भई, राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मू ने लगातार विद्रूप होती जा रही सामाजिक अवस्थाओं को ध्यान में रखकर और उससे बेहद व्यथित होकर यह बात कही थी। उन्होंने बेहद स्पष्ट तौर पर कहा था कि समाज में घटित हो रही महिला अत्याचार की घटनाओं को देखकर हम चुप कैसे बैठ सकते हैं? कैसे हम एक से बढ़कर एक वीभत्स, हृदय विदारक और अमानवीय घटनाओं को सहज भाव से देखते हैं? तात्कालिक तौर पर उन्हें लेकर आक्रोश भी जताते हैं किंतु बहुत जल्दी यह सब भूल भी जाते हैं। हमारा यह उदासीन व्यवहार और असामान्य घटनाओं को भुला देने का स्वभाव समाज में अनेक विषमताओं को जन्म दे रहा है। हम सभी को इस विषय पर चुप्पी तोड़ते हुए ऐसी अमानवीय घटनाओं की लोकतांत्रिक ढंग से आलोचना अवश्य करनी चाहिए। संभव है यह बयान उन्होंने कोलकाता में घटित एक प्रशिक्षु महिला चिकित्सक के बलात्कार और उसकी दर्दनाक हत्या से व्यथित होकर ही दिया हो। क्योंकि यह घटना बेहद असाधारण तरीके की है। इतनी असाधारण कि आम जनता द्वारा इसे दूसरा निर्भया कांड कहा जा रहा है। यदि चिकित्सीय परीक्षण उपरांत सामने आए तथ्यों की बात करें तो पहले वीभत्स दुष्कृत्य की शिकार हुई और फिर दर्दनाक मृत्यु को प्राप्त हुई उक्त महिला चिकित्सक के शव की अवस्था बताती है कि उसका अंग अंग तोड़ा मरोड़ा और कुचला गया है। मानो यह अपराध करने वाला व्यक्ति मनुष्य था ही नहीं। यह घटना इसलिए भी असाधारण है क्योंकि पुलिस अवगत होकर भी एफ आई आर लिखने और अपराधी को पकड़ने से बचती रही। वहीं मामले को आत्महत्या साबित करने के जी तोड़ प्रयास किए गए। जब आम जनता ने पुलिस प्रशासन के इस जन विरोधी रवैये का विरोध किया तो आंदोलनकारियों पर प्राण घातक हमले किए गए। यही नहीं, सत्ता पर काबिज राजनीतिक दल की शह पर असामाजिक तत्वों के झुंड ने साक्ष्यों और सबूतों मिटाने के युद्ध स्तरीय एवं आक्रामक प्रयास किए। यह सब इसलिए भी असाधारण लगता है कि इस दौरान पश्चिम बंगाल की पुलिस मूक दर्शक ही बनी रही। यह इसलिए भी साधारण अथवा सामान्य नहीं माना जा सकता, क्योंकि मामले पर संज्ञान लेते हुए माननीय न्यायालय द्वारा भी पुलिस और पश्चिम बंगाल की ममता सरकार की कड़े शब्दों में भर्त्सना की गई तथा पूरा मामला सीबीआई के सुपुर्द करने संबंधी निर्देश जारी करने पड़ गए। इसे बिडम्बना ही कहा जाएगा कि राज्य सरकार और वहां की पुलिस प्रशासन की मौजूदगी में इस बेहद संवेदनशील मामले से इतनी ज्यादा छेड़छाड़ की गई कि अब मृत महिला चिकित्सक को मृत्यु उपरांत न्याय दिलाने में भी केंद्रीय जांच एजेंसी को जमीन आसमान एक करने पड़ रहे हैं। हम यह दावा नहीं करते कि समाज महिलाओं पर अत्याचार जैसी बुराइयों से पूरी तरह मुक्त हो गया है। लेकिन यह कहना गलत नहीं होगा कि निर्भया कांड और कोलकाता कांड जैसी घटनाएं सामान्य नहीं मानी जा सकतीं। अतः इन्हें देखने सुनने के बाद हर वह व्यक्ति व्यथित हो उठता है जो जीवित है और उसमें संवेदनाएं विद्यमान बनी हुई हैं।
जाहिर है राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मू को भी इस घटना ने बहुत ज्यादा व्यथित किया हो और उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ कि जिस संवैधानिक और सर्वोच्च पद पर वे आसीन हैं, वहां बैठकर उन्हें चुप्पी नहीं साधनी चाहिए। फल स्वरुप उन्हें वह सब कहना पड़ गया, जिसे अकारण ही विरोधी दलों द्वारा विद्रूप राजनीति का विषय बनाया जा रहा है। यहां विरोधी दलों का आचरण इसलिए भी दिग्भ्रमित और गलत प्रमाणित होता है, क्योंकि इस आशय के विचार राष्ट्रपति महोदय से पहले देश के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी भी व्यक्त कर चुके थे। उन्होंने भी इस आशय का बयान किसी छोटे-मोटे प्लेटफार्म पर न देकर देश के स्वतंत्रता दिवस समारोह को संबोधित करते हुए लाल किले की प्राचीर से संबोधित किया था। याद रहे, जिस समय देश के प्रधानमंत्री महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों को लेकर अपनी चिंता प्रकट कर रहे थे, तब तो कोलकाता कांड का दूर-दूर तक कोई अता-पता भी नहीं था। फिर भी उन्होंने स्पष्ट रूप से यह कहा था कि हमारा देश ‘यत्र नार्यस्तु पूर्जयंते रमंते तत्र देवता’ के बोध वाक्य को लेकर चलने वाला राष्ट्र है। यहां सनातन काल से ही नारियों की पूजा की जाती रही है। देश की ऐसी पावन धरा पर इस तरह के कुकृत्य असहनीय हैं। तब उन्होंने स्पष्ट रूप से पूरे देश के सामने यह सवाल रखा था कि जितनी टोका टाकी हम अपनी बेटियों से करते हैं, क्या उतने सवाल हमने कभी अपने बेटों से पूछे हैं? क्या हमने कभी अपने बेटों से यह पूछा है कि वह कहां जा रहे हैं और वापस कब लौटेंगे? क्या हमने कभी उनसे यह सवाल किया है कि उनकी मित्र मंडली कैसी है और वह किन लोगों के साथ उठते बैठते हैं। क्या बेटियों की तरह कभी बेटों को डांटा फटकारा गया कि उन्हें समय पर घर लौटना चाहिए और अमुक व्यक्ति का चाल चलन ठीक नहीं है तुम्हें उससे बिल्कुल नहीं मिलना चाहिए।
दरअसल यह वह चिंता है जो एक जागरूक और जवाबदेह व्यक्तित्व के मन मस्तिष्क में सामाजिक अवनति को देखकर उत्पन्न हो उठती है। लिखने का आशय है कि जितनी तेजी से हम विकसित और उन्नत हो रहे हैं, उतनी ही तेजी से हमारा संबंध संस्कारों और नैतिकता से छूटता चला जा रहा है। पश्चिम से आयातित जीवन शैली ने हमारी उच्च स्तरीय परंपराओं को जैसे बुरी तरह आहत कर दिया है। जिस समाज में कल तक महिलाओं को माताजी, बहन जी कहकर संबोधित किया जाता था, अब मोबाइल और दिग्भ्रमित सोशल मीडिया से प्रेरित होकर पूजा योग्य माता बहनों की पावन काया में भोग विलास की वस्तु को खोजा जाने लगा है। जब यह सब वर्जनाएं समाज के सामान्य व्यवहार में परिवर्तित होने लगें, तब जागरूक और जवाबदेह व्यक्तित्वों को चुप्पी तोड़नी ही होती है। यही कार्य पहले देश के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने किया और अब महामहिम राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मू कर रही है। लेकिन विरोधी दलों और उनके नेताओं को ऐसा लगता है कि दोनों महान राष्ट्र सेवकों द्वारा यह सब राजनीतिक विरोधियों और उनकी सरकारों को लक्ष्य बनाकर कहा जा रहा है तो फिर यह समझने वालों का अपराध बोध ही है, इससे ज्यादा और कुछ नहीं। ऐसे महान राष्ट्र सेवकों के पवित्र बयानों को राजनीति का विषय बनाना निंदनीय ही नहीं भर्त्सना योग्य कृत्य कहा जाएगा। राजनीति उचित नहीं!
लेखक- अधिमान्य पत्रकार है