एकात्म दर्शन का अनुसरण ही दीनदयाल जी को सच्ची श्रद्धांजलि

उपाध्याय जी की पुण्यतिथि पर विशेष

डॉ राघवेंद्र शर्मा

10 और 11 फरवरी की अर्धरात्रि का कालखंड कभी भी विस्मृति नहीं किया जा सकेगा। क्योंकि यह वह कालरात्रि थी जब अज्ञात राष्ट्रद्रोहियों ने भारतीय जन संघ के तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष पंडित दीनदयाल उपाध्याय की नृशंस हत्या कर दी थी। यदि गौर करें तो हम पाएंगे कि देश गुलाम रहा हो अथवा आजाद रहा, लंबे कालखंड तक इस पर ऐसे शासक काबिज रहे जिन्हें कभी भी राष्ट्र धर्म की चिंता ही नहीं रही। यही वजह रही की इस देश का भूमिपुत्र कहा जाने वाला हिंदू समाज सदैव ही उपेक्षा का शिकार बन रहा। जिस जिस नेता ने भी तत्कालीन सरकारों की इस अस्पृश्यता का विरोध किया, उन उनको प्रताड़ित किया गया और उनके अनिष्ट की चेष्टाएं भी की गईं। ऐसे ही महान विभूतियां में से एक पंडित दीनदयाल उपाध्याय भी थे। उनके बारे में इतना जान लेना भी अनिवार्य है कि वे आजादी से पूर्व उच्च शिक्षित होकर प्रशासनिक परीक्षाओं में उत्तीर्ण हुए। किंतु यह प्रयास उन्होंने अपनी योग्यता साबित करने के लिए ही किए थे, अंग्रेज शासन में प्रशासनिक पद प्राप्त करने के लिए नहीं। इसका प्रमाण यह है कि जब उन्हें नौकरी के लिए बुलावा मिला तो महत्वपूर्ण प्रशासनिक पदों को ठुकराते हुए उन्होंने यही कहा था कि मुझे केवल इतना प्रमाणित करना था कि भारतीय युवा किसी भी मायने में अंग्रेजों से काम नहीं है। यदि वे ठान लें तो कुछ भी कर सकते हैं। अपनी इसी बात को प्रतिपादित करने के लिए मैंने प्रशासनिक परीक्षाओं में भागीदारी की और उनमें सफलता भी पाई। जबकि मेरा लक्ष्य भारतीय प्रशासनिक व्यवस्था में ऐसा संतुलन स्थापित करने का है, जिसके चलते लोग जाति संप्रदाय को आधार बनाकर जनता में भेदभाव करना छोड़ दें‌। संभवत उनकी यही विचारधारा उन्हें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ओर खींच कर ले गई। वहां उन्होंने अनेक दायित्वों का निर्वहन करते हुए द्वितीय वर्ष प्रशिक्षण प्राप्त किया और संघ के प्रचारक बन गए। कालांतर में जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के आदि सरसंघ चालक श्री केशव बलिराम हेडगेवार के मस्तिष्क में यह विचार कौंधा कि जब तक शासन के सामने प्रबल तरीके से हिंदुओं का पक्ष नहीं रखा जाएगा, तब तक तुष्टिकरण की नीति पोषित होती रहेगी। इससे स्वतंत्रता संग्राम पर तो प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा ही, आजाद होने पर स्वतंत्र भारत में भी भारी असंतुलन बना रहेगा। लेकिन राजनीतिक स्तर पर इस बात को मुखर करने के लिए एक ऐसे संगठन की आवश्यकता थी जो संघ की विचारधारा का अनुसरण करते हुए सरकार और न्याय व्यवस्थाओं में हिंदुओं को उनकी योग्यता अनुसार पदों पर आसीन किए जाने हेतु मानस तैयार करे। इसके लिए जब भारतीय जनसंघ का गठन हुआ तो श्यामा प्रसाद मुखर्जी उसके पहले राष्ट्रीय अध्यक्ष हुए। उन्होंने पंडित दीनदयाल उपाध्याय की कार्य प्रणाली से प्रभावित होकर डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार और गुरु जी श्री गोलवलकर जी से आग्रह करके पंडित दीनदयाल उपाध्याय को भारतीय जन संघ के लिए मांग लिया। अनुमति प्राप्त होने पर उन्हें उक्त संगठन का राष्ट्रीय महामंत्री बनाया गया। अगले ही कालखंड में उनकी कार्य प्रणाली से प्रभावित होकर पंडित दीनदयाल उपाध्याय को भारतीय जन संघ का राष्ट्रीय अध्यक्ष निर्वाचित घोषित किया गया। पंडित दीनदयाल उपाध्याय हिंदुओं के पुनरुद्धार के लिए संघर्ष करते थे। वहीं इस वर्ग के प्रबुद्ध लोगों को यह नसीहत भी देते रहते थे कि अंततः तो सभी मानव एक परमात्मा के अंश ही हैं। अतः हमें सभी को एक नजर से और एक भाव से देखना होगा। इसी को एकात्मक मानव दर्शन कहते हैं। जहां तक हिंदू धर्म का पक्ष लेने की बात रही तो पंडित दीनदयाल उपाध्याय यह मानते थे कि सौभाग्यवश हिंदू धर्म ही वह जीवन प्रणाली है जो पूरी ईमानदारी के साथ एकात्म मानव दर्शन का बगैर भेदभाव के अनुसरण कर सकती है। तात्पर्य है कि यदि समूची मानव प्रजाति को अस्पृश्यता से रहित होकर समान न्याय प्रदान करना है तो हिंदू धर्म को मजबूती प्रदान करनी ही होगी। उनके यह विचार तुष्टिकरण की राह पर चलने वाले राजनीतिक दलों और सत्ता पर काबिज आजाद भारत के अनेक नीति नियंताओं को रास नहीं आते थे। यही वजह है कि राजनीतिक आधार पर उनका पुरजोर विरोध भी किया जाता रहा। लेकिन पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने हमेशा यह सिद्धांत दुनिया के सामने रखा कि हमें इस बात की चिंता नहीं करनी चाहिए की कितने लोग हमारा विरोध कर रहे हैं। बल्कि हमें यह निश्चित कर लेना चाहिए कि हम जो करने जा रहे हैं, वह हृदय की गहराइयों से एकदम पवित्र धारणा से उपजा हुआ हमारा पावन कृतित्व ही है। यह विश्वास हो जाने पर हमें अपने संकल्प पर आगे बढ़ते रहना है, फिर भले ही इसके लिए मृत्यु से ही साक्षात्कार क्यों ना हो जाए। जहां तक मृत्यु की बात है तो उसे पंडित दीनदयाल उपाध्याय बेहद सहज घटनाक्रम के रूप में लेते रहे। इसका कारण यह रहा कि जब वे केवल 19 बरस के हुए थे, तब तक उनके सिर से अपने माता-पिता सहित अधिकांश अभिभावकों का साया पूरी तरह उठ चुका था। इसके बाद उन्होंने बेहद प्रतिकूल हालातो में अपनी शिक्षा पूरी की और फिर महत्वपूर्ण शासकीय पदों को ठोकर मारते हुए भारत माता की सेवा में जुट गए। यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के ही संस्कार थे कि उन्हें अपने लिए विरोधियों की ओर से खतरा होने पर भी न्याय का मार्ग नहीं बदला। राष्ट्र विरोधियों की ओर से जान जोखिम उत्पन्न किए जाने के संकेत मिलने लगे थे, लेकिन वह यह भी जानते थे कि अपने कार्य से विचलित होना समाज के साथ धोखाधड़ी ही है और कुछ नहीं। यही वजह है कि वे राष्ट्र विरोधियों की परवाह किए बगैर एकात्म मानव दर्शन की अलख जगाते रहे और इस सत्य को उजागर करते रहे कि तुष्टीकरण के नाम पर अनेक पंथों, संप्रदायों के लोगों को हिंदुओं के खिलाफ भड़काकर मतलब परस्त राजनेता अंततः भारतीय मानव समाज को अंधकार में धकेलने का कार्य करते हैं। क्योंकि जब तक भारत में हिंदू धर्म बहुसंख्यक बना रहेगा तब तक ही हम एकात्मक मानव दर्शन के परिपालन की इच्छा फलीभूत होते देख पाएंगे। पंडित दीनदयाल उपाध्याय के ये विचार खासकर वामपंथियों और कांग्रेस समेत ऐसे राजनीतिक दलों को फूटी आंख नहीं सुहाते थे, जिन्हें केवल तुष्टीकरण के आधार पर सत्ता पर काबिज रहना स्वीकार था। यही वजह रही की जो असामाजिक तत्व और राष्ट्र विरोधी लोग पंडित दीनदयाल उपाध्याय का अनिष्ट चाहते थे, उन्हें उच्च स्तर पर नीति नियंताओं का संरक्षण मिला हुआ था। यही वजह रही की 10 और 11 फरवरी 1968 की दरमियानी रात में उनकी हत्या हुई, लेकिन लंबा अंतराल गुजर जाने के बाद भी तत्कालीन सरकारें यह खुलासा नहीं कर पाईं कि आखिर पंडित दीनदयाल उपाध्याय के हत्यारे कौन थे। पंडित दीनदयाल उपाध्याय सशरीर भले ही हमारे बीच ना हों, लेकिन उनके सिद्धांत आज भी हमें एकात्म मानव दर्शन के पथ पर चलने की प्रेरणा देते हैं। यह उन्हीं के त्याग तपस्या का फल है कि जिस जन संघ को उन्होंने स्वर्गीय श्यामा प्रसाद मुखर्जी के साथ एक पौधे के रूप में रोपा था वह अब एक विशाल बट वृक्ष के रूप में भाजपा बनकर देश की लोकतंत्र प्रणाली को मजबूती प्रदान कर रहा है। यही नहीं, उनका एकात्म मानव दर्शन पूरी दुनिया को अपनी ओर आकर्षित करने में निरंतर सफलताएं प्राप्त कर रहा है। यह इसलिए भी संभव है, क्योंकि हमारे देश के लोकप्रिय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी भी एकात्म मानव दर्शन को सामने रखकर ही भारतीय समाज को नित्य नई ऊंचाइयों पर स्थापित करने के उद्यम में संलग्न बने हुए हैं। यही वजह है कि जो सम्मान पंडित दीनदयाल उपाध्याय को प्राप्त था, अब उनकी छवि को प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी में देखा जाता है। केवल भारत ही नहीं अपितु समूचा विश्व उनकी ओर आशा भरी नजरों से निहार रहा है। दुनिया को भरोसा है कि पंडित दीनदयाल उपाध्याय जैसे पूर्वजों के द्वारा स्थापित एकात्म मानव दर्शन के माध्यम से ही मानव मात्र का भला किया जा सकेगा और यह कार्य श्री नरेंद्र मोदी बखूबी करते दिखाई दे रहे हैं।

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