नवरात्र: हिंदू धर्म और भारतीय संस्कृति का अद्वितीय संबंध – डॉ राघवेन्‍द्र शर्मा

शरदीय नवरात्र शुरू हो गए हैं। मध्य प्रदेश समेत देशभर में माता के जगराते गूंजने लगे हैं। हर कोई माता की भक्ति में लीन है। सदैव की तरह ही दोनों समय की आरतियों के बाद जयकारे गूंज रहे हैं। धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो, प्राणियों में सद्भाव हो, विश्व का कल्याण हो। यही भारतीयता का मूल मंत्र है और इसी को सनातन हिंदू धर्म कहते हैं। इसमें तो कोई संदेह है ही नहीं कि भारतीय सभ्यता और सनातन हिंदू धर्म, यह दोनों ही एक दूसरे में गुंथे हुए हैं। हिंदू धर्म और भारतीय सभ्यता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इन्हें अलग करके किसी भी एक की कल्पना नहीं की जा सकती। आज भले ही दुनिया भर में अनेक सांप्रदायिक अथवा सामुदायिक पंथ प्रचलन में हों, लेकिन साहित्यों, तर्कों के आधार पर पूरे दावे के साथ यह कहा जा सकता है कि भारतीय सभ्यता और सनातन हिंदू इस ब्रह्मांड के प्रादुर्भाव काल से ही अस्तित्व में बने हुए हैं। वह आदिशक्ति मां भवानी ही है जिन्होंने ब्रह्मांड के अस्तित्व में आने से पूर्व शून्य में सत्व गुण रजोगुण और तमोगुण से तीन पिंड स्थापित किये और इनसे क्रमशः भगवान विष्णु, भगवान महादेव और भगवान ब्रह्मा जी का प्राकट्य हुआ। इस प्रमाणिक और धार्मिक प्रसंग के आधार पर कहा जा सकता है कि भारत देश अपने और ब्रह्मांड के प्रादुर्भाव काल से ही नारी को सम्मान देते रहने वाला देश रहा है। जैसा कि मैंने अभी-अभी लिखा, ब्रह्मांड के रचयिता ब्रह्मा जी, पालन कर्ता विष्णु जी और संहार कर्ता महादेव जी के प्राकट्य में आदिशक्ति मां भवानी कर्ता हैं, कारक हैं और कारण भी। उनकी महिमा निराली है। धर्म शास्त्र कहते हैं की सृष्टि के उत्पन्न होने, उसके संचालित रहने और उसे संतुलित बनाए रखने में त्रिदेव ही निर्णायक हैं। लेकिन इसके अस्तित्व में बने रहने के लिए जिस विद्या द्रव्य और शक्ति की अत्यंत आवश्यकता है, उनकी दात्री भी तीनों देवियां, मां सरस्वती, मां लक्ष्मी और मां दुर्गा ही हैं। यहां तक कि दैवीय शक्तियों को ऊर्जा उपलब्ध कराए रखने का दायित्व भी गायत्री मां के हाथ में ही स्थित है। विद्वान बताते हैं कि वह मां गायत्री ही हैं, जो यज्ञों के माध्यम से हव्य को स्वीकारती हैं और उन्हें भोजन के रूप में देवताओं को उपलब्ध कराती हैं। संभवत इसीलिए यज्ञ को पिता और गायत्री को माता कहा गया है।

यह लिखने में भी कोई संशय नहीं है कि हमारे द्वारा अनेक देवताओं को पूजा जाता है, उन्हें आदर्श माना जाता है। लेकिन यह सत्य भी पूर्व से स्थापित है कि हमने जिन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम माना, उन श्री राम के व्यक्तित्व को गढ़ने में माता कौशल्या का असंदिग्ध योगदान है। लाडले लखन लाल अपने अग्रज की सदैव ही ढाल इसलिए बने रहे, क्योंकि उन्हें माता सुमित्रा ने अपने भाई पर न्योछावर होना बचपन से ही सिखाया। माता कैकई को भले ही श्री राम को वनवास देने का दोषी ठहराया जाता रहा हो। किंतु यह भी सत्य है कि श्री राम को सर्वाधिक स्नेह करने वाली माताओं में उनका नाम सर्वप्रथम आता है। इस रहस्य को भी जान लें कि वनवास से लौटने के पश्चात प्रभु श्री राम ने माता के कैकई से कहा कि “मां यदि आप मुझे वन को ना भेजतीं तो मैं रावण को कैसे मार पाता”। जहां तक भरत जी की बात है तो उन्हें भी बचपन से श्री राम के आदर्शों का पालन करने की सीख माता कैकई के द्वारा ही दी जाती रही। इन सभी तर्कों को बौद्धिक आधार पर नकारा नहीं जा सकता। शायद मैं इसीलिए यह कहने का साहस कर पा रहा हूं कि हां मेरा देश नारी नई को प्रधानता देने वाला, उन्हें सम्मान देने वाला देश था, है और सदैव बना रहेगा। मेरा नारी उत्थान के नाम पर भारत को और भारतीयता को उपदेश देने वाले स्वयंभू विद्वानों से एक साधारण सा सवाल है। वह यह कि हमें इस विश्व में स्थापित किसी ऐसे देश का नाम बताया जाए जहां शंकर से पहले गौरी, राम से पहले सीता, श्याम से पहले राधा, अर्थात पुरुष से पहले नारी का नाम लिया जाता हो। इसके बावजूद जब कुछ वामपंथी सोच के गुलाम तथा कथित बुद्धिजीवियों द्वारा, विभिन्न विसंगतियों को केंद्रित कर, उनका दोषी पुरुष प्रधान समाज को ठहराया जाता है तब अंतर्मन को बड़ी पीड़ा होती है। मैं मानता हूं, अपवाद स्वरूप पुरुष वर्ग के कुछ लोगों ने गलतियां की होंगी। लेकिन यह भी सत्य है कि भगवान कृष्ण ने राधा रानी के चरणों की धूल को मस्तक पर धारण किया है। अधर्मियों का नाश करने के पश्चात अत्यंत कृद्ध हो गईं मां काली को शांत करने के लिए देवाधिदेव महादेव ने स्वयं को उनके चरणों में समर्पित किया है। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम ने भी सुग्रीव पत्नी रोमा के सम्मान को प्रधानता देते हुए बालि का कपट पूर्ण वध करना स्वीकार किया है। इसे नारी के आत्मविश्वास की पराकाष्ठा नहीं तो और क्या कहा जाए कि त्रिलोक विजयी रावण के समक्ष एक तिनके को सामने करके माता सीता हर पल उसे चुनौती देती हैं, और कहती हैं कि “दुष्ट रावण” तू राम से क्या खाक युद्ध करेगा! तू पहले इस तिनके की मर्यादा को तोड़ कर तो दिखा। याद रहे, महाभारत के दौरान दुष्टों के सर्वनाश का सबसे बड़ा कारण राजपाट ना होकर द्रोपदी का अपमान ही है। वह वीरांगना कुंती ही हो सकती है, जो शत्रु पक्ष के बीच रहकर भी अपने पुत्रों को विजयी भव का आशीर्वाद देकर उनका मनोबल बढ़ा सकती है। वीर घटोत्कच और बर्बरीक को तो भीम का संरक्षण मिला ही नहीं। उन्हें सर्वगुण संपन्न बनाने में हिडिंबा का ही एकमात्र मार्गदर्शन रहा। वर्तमान युग की बात की जाए तो माता जीजाबाई को कौन नहीं जानता? ये वो आदर्श महारानी हैं जो बाल्य काल से ही अपने पुत्र शिवाजी को सिंधु दुर्ग दिखाकर सदैव स्मरण कराती रहीं कि यह राज्य हमारा स्वाभिमान है। इसे तुम्हें पुनः प्राप्त करना ही है। तुम केवल यह कर्तव्य पूर्ण करके ही मेरे दूध के ऋण से मुक्त हो सकोगे। रानी लक्ष्मी बाई, रानी दुर्गावती, रानी अहिल्याबाई जेसी वीरांगनाओ ने तो पुरुष वर्ग के संरक्षण की कामना किए बगैर अपनी वीरता को प्रमाणिकता प्रदान की और शत्रुओं से लोहा लेने वाली रण चंडिकाएं कहलाईं। भारतीय सभ्यता में नारी की प्रधानता का आधिकाधिक स्थानों पर उल्लेख है। इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि विदेशी शिक्षा पद्धति से दिग्भ्रमित और विदेशी शासको से प्रभावित, शासकीय खजाने से पलने वाले चाटुकार इतिहासकारों ने भारतीय सभ्यता को तोड़ मरोड़ कर नए प्रायोजित इतिहास रचे। उनमें नारी शोषित और पुरुष को शोषक प्रमाणित कर, एक दूसरे के पूरक नर और नारी के बीच विध्वंसकारी षड्यंत्र रचे गए। मैं यह नहीं कहता कि हमारे देश में नारी पर अत्याचार हुआ ही नहीं। लिखने का आशय केवल यह है कि यदि अब ऐसा हो रहा है तो इसका दोष केवल और केवल लॉर्ड मैकाले द्वारा स्थापित दोषपूर्ण शिक्षा पद्धति को ही जाता है। यह शिक्षा पद्धति व्यक्ति को नैतिकता और संस्कारों से रहित पढ़ा लिखा आदमी बनाती है। मेरा अपना अनुभव कहता है, ऐसी शिक्षण पद्धतियों से प्रभावित तथा कथित पब्लिक स्कूलों में विद्यार्थियों को व्यावसायिक और आर्थिक स्तर पर सफलता के गुर तो बताए जाते हैं, लेकिन उन्हें नारी का सम्मान करना नहीं सिखाया जाता। निसंदेह टेलीविजन, विभिन्न सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स के माध्यम से घरों की बैठकों तक पहुंच रही विकृत दृश्य एवं श्रव्य सामग्रियों ने कोड़ में खाज का काम किया है। लेकिन इन सभी विसंगतियों से बचने के लिए भी हमें कुशल मार्गदर्शकों की आवश्यकता है। जो यह बता सकें कि भारतीय सभ्यता में नारी सम्मान को सर्वोच्च प्राथमिकता ब्रह्मांड के प्रादुर्भाव काल से ही प्राप्त है। इस भाव को बनाए रखना ही हमारी नैतिकता, हमारे संस्कार, हमारी संस्कृति और हमारा परम धर्म है। लेकिन इस भाव को स्थाई रूप से प्राप्त करने के लिए हमें व्यावसायिक चकाचौंध से हटकर भारत को चिरकाल तक विश्व गुरु बनाए रखने वाली शिक्षा पद्धति की ओर वापस लौटना होगा। जी हां मैं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मार्गदर्शन में कार्यरत विद्या भारती और संस्कार भारती जैसे अनुसांगिक संगठनों द्वारा संचालित सरस्वती शिशु विद्या मंदिरों की बात कर रहा हूं। उनके ही जैसे भारतीय संस्कारों की प्रधानता को केंद्र में रखकर शिक्षा प्रदान करने वाली शैक्षणिक संस्थाओं की बात कर रहा हूं। यहां आज भी सहपाठिनी को बहन, शिक्षिका को दीदी के उद्बोधन से पुकारा जाता है। यहां भैया बहनों को सिखाया जाता है कि भारत के नाम को प्रासंगिकता प्रदान करने वाले राजा भरत को योग्य एवं संस्कारित बनाने के लिए दुष्यंत का साथ होना आवश्यक नहीं। इस अनुकरणीय और चुनौती पूर्ण कार्य को संपादित करने के लिए एक शकुंतला ही काफी है। तभी तो हमारे बोध वाक्यों में “नारी तू नारायणी” का उच्चारण भी प्रमुखता लिए हुए है। सभी देशवासियों को नवरात्रि की शुभकामनाएं।

लेखक स्‍वतंत्र पत्रकार है

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