बाल्यकाल से ही पूर्वजों ने भारतीय गौरव की जो कथाएं सुनाईं, उन्हें आत्मसात करने के बाद ऐसा कभी मन में आया ही नहीं कि एक दिन ऐसा भी आएगा जब कुछ लोग हिंदुओं और सिखों के अलग-अलग अस्तित्व की कल्पना भी करने लगेंगे। फिर भले ही वह कल्पनाएं और कृतित्व राजनैतिक लाभ हासिल करने की गरज से ही क्यों न की हो गई हो। लेकिन आज जब कुछ लोग जिम्मेदार होकर भी गैर जिम्मेदाराना तरीके से हिंदुओं और सिखों को लेकर अलग-अलग धारणाएं स्थापित करने में लगे हुए हैं, तो यह देख सुनकर आश्चर्य होता है और अफसोस भी। जैसा कि सर्व विदित है, अमेरिकी प्रवास पर गए कॉन्ग्रेस नेता राहुल गांधी ने सिखों को लेकर बेहद आपत्तिजनक बयान दिया है। उन्होंने कहा है कि भारत में सिख कृपाण लेकर चल पाएंगे या नहीं, वे हाथ में कड़ा पहन पाएंगे या नहीं, उनके शीश पगड़ी रहेगी या नहीं और वे गुरुद्वारे भी जा पाएंगे या नहीं, इस पर एक बड़ा सवाल है। उन्होंने अपने कथन में सिखों की धार्मिक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर भी सवाल खड़े किए। यह बेहद आपत्तिजनक और निंदा करने योग्य बयान है। बल्कि स्पष्ट तौर पर देखा जाए तो इस बयान को राष्ट्रद्रोह की श्रेणी में भी रखा जाना चाहिए। क्योंकि जिस प्रकार हिंदू से हिंदुत्व और हिंदुत्व से हिंदुस्तान है, उसी प्रकार सिख धर्म को भी हिंदुत्व और हिंदुस्तान से अलग करके नहीं देखा जा सकता। इस बात को यूं भी समझा जा सकता है। जब भारत पर मुगलों का शासन था, तब गुरु गोविंद सिंह जी उनसे प्रमुख तौर पर लोहा ले रहे थे। स्वतंत्रता की लड़ाई में अपना शीश देने वाले रणबांकुरों की जरुरत थी। जब उन्होंने ऐसे बहादुरों का सार्वजनिक आव्हान किया, तब उनकी सेवा में हिंदू मतावलंबी भाई दयाराम, भाई धर्मदास, भाई हिम्मत राय, भाई मोकम चंद्र और भाई साहिब चंद्र उपस्थित हुए। इन पांचों को भरोसा दिलाया गया कि तुम सबके क्रम से शीश काटे जाने हैं। तुम्हारा खून बहने वाला है। उन्हें इस तरह का एक कृतिम दृश्य भी दिखाया गया, ताकि इनके दिल कमजोर हों तो ये अभी पीछे हट जाएं। किंतु ऐसा नहीं हुआ, इन पांचों ने अपने सर्वस्व बलिदान की दृढ़ता दिखाई तो गुरु गोविंद सिंह जी प्रसन्न हुए और उन्होंने इन पांचों को अमृत छका कर पंज प्यारे बना दिया। इनसे खालसा पंथ की स्थापना हुई। वह खालसा पंथ, जिसने भारत को विदेशी हमलावरों से बचाने के लिए अपने प्राण न्योछावर करने में कोई कसर शेष नहीं छोड़ी। यह खालसा पंथ आज भी सिख और हिंदू भाइयों की पहचान है। खालसा पंथ में हिंदुओं और सिखों के प्राण बसते हैं। बड़ा आश्चर्य होता है यह जानकर कि फिर भी कुछ लोग हिंदू, सिख और खालसा को अलग-अलग दृष्टि कोण से देखते हैं। कोई राष्ट्रद्रोही अलग खालिस्तान बनाने की मांग करता है, तो कोई उन्हें खुश करने के लिए सिखों की धार्मिक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सवालिया निशान खड़े करने लगता है। यदि गौर से देखा जाए तो हिंदुस्तान से अलग खालिस्तान की मांग करने वालों और सिखों की धार्मिक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सवालिया निशान खड़े करने वालों को एक ही श्रेणी में रखा जाना उचित है। क्योंकि जिस तरह हिंदुस्तान हिंदुओं का है, उसी प्रकार सिखों की उत्पत्ति भी हिंदुस्तान से ही है। यानि जितना हिंदुस्तानी हिंदू है, सिख अथवा खालसा को उससे बिल्कुल कम नहीं आंका जा सकता। वास्तविकता भी यही है कि हमारे देश में हिंदुओं, सिखों और खालसाओं को लेकर कोई भेदभाव है ही नहीं। बल्कि हिंदू समाज तो सिखों अथवा खालसाओं को सदैव ही सरदार जी कह कर संबोधित करता आया है। यह बताने की भी आवश्यकता नहीं कि सरदार – मुखिया शब्द का द्योतक है। आशय स्पष्ट है, हिंदू समाज ने सिख धर्मगुरु श्री गुरु गोविंद साहब जी की सेवा में जो पंज प्यारे समर्पित किए, हिंदू समाज ने उन्हें युद्ध के मैदान में अपना सरदार उद्घोषित किया और यह उद्घोषणा आज तक जारी है। आज भी हम किसी सिख और खालसा को देखते हैं तो उनके नाम से परिचय ना होने की अवस्था में उन्हें सरदार जी कह कर ही सम्मान के साथ बुलाते हैं। अब बताओ जब हिंदू, सिख और खालसा ने युद्ध के मैदान में इस देश की अस्मिता को बचाने के लिए एक साथ खून बहाया हो और आज भी एक साथ खून बहा रहे हैं, भला उन्हें कौन अलग कर सकता है? बात साफ है- हिंदुस्तान जितना हिंदुओं का है उतना ही सिखों और खालसाओं का, इसमें किसी को भी संशय नहीं होना चाहिए।
इतनी स्पष्टता के बावजूद यदि कोई हिंदू, सिख और खालसा के बीच भेद पैदा करने की कोशिश करता है तो वह तलवार की धार से पानी को काटने का असफल प्रयास करता ही प्रतीत होता है। फूट डालो राज करो की नीति पर चलने वाले नेताओं के भले ही प्रयास असफल रहे हों, लेकिन हमें ऐसे लोगों की कारगुजारियों को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। क्योंकि राष्ट्रद्रोही को एक से अधिक बार क्षमा करने का पाप हिंदू सम्राट पृथ्वीराज चौहान के हाथों हो चुका है। पृथ्वीराज चौहान की जरूरत से ज्यादा उदारता ने उन्हें तो संकट में डाला ही, पूरे देश की अस्मिता पर भी सवालिया निशान अंकित कर दिया था। अतः यह लिखना भी उचित रहेगा कि जिस प्रकार हम भारत से अलग खालिस्तान मांगने वालों की राष्ट्रद्रोही हरकतों पर अपनी पैनी नजर बनाए हुए हैं, उसी प्रकार हमें इनकी भाषा बोलने वाले और इन्हें प्रोत्साहित करने वाले राजनेताओं को भी बार-बार क्षमा नहीं करना चाहिए। क्योंकि हिंदुस्तान, हिंदू, सिख अथवा खालसा को अलग करने या उन्हें अलग-अलग दृष्टिकोण से देखने वाले लोग उनके बीच भेद डाल कर एक प्रकार से राम, लक्ष्मण और भरत, शत्रुघ्न को ही अलग करने का दुस्वप्न देखते नजर आते हैं। ऐसा करना केवल राष्ट्रद्रोह ही नहीं, अपितु नैतिक अपराध भी है। सरकार को जल्द से जल्द ऐसे लोगों के खिलाफ राष्ट्रद्रोह का मुकदमा दर्ज करना चाहिए।
लेखक स्वतंत्र पत्रकार है