शीश दिया पर सार ना दिया। ठीक वैसे, जैसे- प्राण जाई पर वचन न जाई।।
प्रभु श्री राम जानते थे कि यदि मैं 14 वर्ष के लिए वनवास को गया तो पिता श्री दशरथ जी का जीवित रहना असंभव हो जाएगा। अयोध्या अनाथ हो जाएगी और यहां उपरोक्त काल अवधि तक किसी भी प्रकार के पर्व उल्लास पूर्वक नहीं मनाए जाएंगे। इसके बाद भी भगवान श्री राम ने वन गमन को ही स्वीकार किया। क्योंकि वे जानते थे, यदि माता कैकयी की महत्वाकांक्षाओं का सम्मान ना हुआ और राजा दशरथ के वचन का मान ना रखा गया तो रघुवंश की यश कीर्ति मिट्टी में मिल जाएगी। गोस्वामी तुलसीदास जी इसी प्रकार की अनेक अवस्थाओं को ध्यान में रखकर यह चौपाई लिखते हैं-
रघुकुल रीत सदा चली आई।
प्राण जाई पर वचन न जाई।।
कलयुग में भी एक ऐसा दृश्य तब प्रकाश में आता है, जब सिखों के नवमे गुरु श्री तेग बहादुर सिंह जी के सामने धर्म परिवर्तन का प्रस्ताव रखा गया। तत्कालीन मुगल शासक औरंगजेब ने उन्हें भली भांति यह स्पष्ट कर दिया कि प्रस्ताव न मानने पर उनका सिर धड़ से अलग किया जाना निश्चित है। फिर भी गुरु श्री तेग बहादुर सिंह ने इस प्रस्ताव को बेहद सख्ती के साथ ठुकरा दिया। क्योंकि वे जानते थे कि यदि मैंने धर्म परिवर्तन किया तो बगावत की वह चिंगारी राख बन जाएगी जो उन्हीं के सद्प्रयासों से बलात् धर्म परिवर्तन के खिलाफ सुलग उठी है। स्मरण करना उचित रहेगा कि तत्समय कश्मीरी पंडितों को जबरदस्ती मुसलमान बनाया जा रहा था। उनकी महिलाओं, बेटियों पर जुल्म ढाए जा रहे थे। विरोध करने पर कत्लेआम मचा हुआ था। वे गुरु तेग बहादुर सिंह ही थे जिन्होंने अनेक हिंदुओं, और खासकर कश्मीरी पंडितों को अपना संरक्षण दिया तथा मुगल शासको की इस नापाक हरकत का कड़ा प्रतिकार किया। उनका रक्षा कवच पाकर हिंदुओं में एक नई ऊर्जा का संचार हो चुका था। लोग मुगल सैनिकों से जूझने लगे थे। अपना धर्म बचाने हेतु बड़े से बड़े बलिदान के लिए हिंदू धर्म कृत संकल्पित हो चला था। अब यह जागृति ठंडी ना पड़े, इस बात को ध्यान में रखते हुए गुरु तेग बहादुर सिंह ने स्पष्ट कर दिया की मुगल सत्ता भले ही उनका शीश उतार ले, लेकिन वह उनका स्वाभिमान उनसे नहीं छीन पाएगी। औरंगजेब जानता था कि यदि देश भर के हिंदुओं का मनोबल तोड़ना है तो उसके लिए गुरु श्री तेग बहादुर सिंह जी का धर्म परिवर्तन करा लिया जाना आवश्यक है। उसे लगता था कि जब गुरुजी ही मुसलमान बन जाएंगे तो हिंदुओं का आत्मबल चकनाचूर हो जाएगा। ऐसे में जब गुरु तेग बहादुर सिंह जी ने औरंगजेब की उम्मीदों से ठीक विपरीत जाकर पूरी निडरता के साथ धर्म परिवर्तन से इनकार किया तो उसने काजी को गुरु तेग बहादुर सिंह की गर्दन काटने का फतवा जारी करने हेतु आदेश दे दिया। बस फिर क्या था, औरंगजेब का संकेत मिलते ही काजी ने फतवा जारी किया और सिपाहियों ने उनका सिर धड़ से अलग कर दिया।
जहां गुरु जी का शीश काटा गया वह स्थान दिल्ली के चांदनी चौक पर स्थित श्री शीशगंज गुरुद्वारा साहब के नाम से प्रतिष्ठित है, और जहां उनका अंतिम संस्कार हुआ उस जगह को विश्व भर में रकाबगंज गुरुद्वारा के रूप में जाना जाता है। गुरु श्री तेग बहादुर सिंह के बलिदान ने देशभर के हिंदू समाज में आंदोलन की ऐसी आग भड़का दी, जो मुगल शासको को अपनी धृष्टता पर पुनर्विचार के लिए मजबूर करने लगी। यह बगावत की चिंगारी तब तक सुलगती रही जब तक कि गुरु तेग बहादुर सिंह के पुत्र श्री गुरु गोविंद सिंह ने इस कमान को संभाल नहीं लिया। यह गुरु तेग बहादुर सिंह के संस्कार ही थे, जो उन्होंने जीते जी हिंदू समाज का स्वाभिमान बचाए रखा और अपने बलिदान के बाद यह जिम्मेदारी अपने सुपुत्र और सिख समाज के दसवें गुरु श्री गोविंद सिंह जी को विरासत में छोड़ते गए। उनके इस बलिदान को अनेक साहित्यकारों ने अपने अपने हिसाब से उल्लेखित किया। सिख समाज में बेहद सम्मान के साथ पढ़े जाने वाले एक ग्रंथ में लिखा गया है-
धरम हेत साका जिनि कीआ।
सीस दीआ पर सिरड न दीआ।।
सकल हिंदू समाज के रक्षक और सिख समाज के नवमे गुरु श्री तेग बहादुर सिंह जी के बलिदान दिवस पर उन्हें शत-शत नमन।
– लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।